कोलकाता, सीमा गुप्ता:
स्त्री
एक स्त्री
एक परित्यक्ता स्त्री
एक विधवा स्त्री

बचा लेती है अपने ही घर का एक कोना छुपने के लिए।
जहां लोगो की नजरो से छुपकर एक पल को ही सही मुस्कुरा ले वो जरा।
दबाने लगते है जब लोग उसे इस समाज का नाम देकर
तब दो पल के लिए जीती है वो उस कोने में।

जब घर के लोग उसे ताने देते है उसे बदकिस्मत और अपसकुनी कह कर तो छुप जाती जाकर उस कोने में थोड़ी सुकून के लिए।
भर जाता है मन उनका खुद ही हीन भावना से जब उसे बस भोग की वस्तु समझा जाता लोगो के नजरो में।
फिर धीरे धीरे व्यस्त करने लगती है खुद को कभी आंगन के पौधों में कभी उन स्वछंद उड़ती पंछियों और तितलियों में खुद के अक्स को दूंढती सपनो के ताने बाने बुनती।
न जाने कितने ही सवाल वो खुद से कर लेती जिसका कोई जवाब नही होता और न कभी मिलता।

अपने दर्द को अपना मुकद्दर समझ हर एक आंसू पी जाती वो चुपचाप और सबके सामने एक झूठी हसी लिए फिर आ खड़ी होती।
वो मान लेती है या उन्हें मानने पर मजबूर कर दिया जाता है की अब उनकी बाकी जिंदगी उपेक्षाओं में ही कटेगी हर कदम पर उन्हें सिर्फ तिरस्कार सहना होगा।
फिर एक दिन वो तड़प- तड़प कर सिसक -सिसक कर अपने मन में एक सवाल लिए की इसमें उसकी गलती क्या थी । उसी कोने में अपना दम तोड देती हैं।

आखिर क्यों ?
क्युं एक औरत परिपूर्ण नही है खुद में
क्यूं मर्दों के लिए कोई बंधन नहीं है।
नही होता उस घर में मर्दों के दुबकने के लिए कोई कोना।
नही होती पाबंदियां खोखले समाज की
नही कहता उन्हें कोई बदकिस्मत और नही होते वो कभी अछूत।

अचानक हो जाते वो बेचारा
और रचा दिया जाता उनका ब्याह दुबारा।
जिंदगी की रंगीनियों पर आखिर क्यू हक नही है हमारा। क्यू !!
आखिर क्यू ?